Tuesday, July 16, 2013

सिकंदर का हृदय परिवर्तन हो गया


 
सिकंदर की महत्वाकांक्षा थी कि वह सभी देशों को जीतकर विश्व विजेता का सम्मान प्राप्त करे। उसने सेना के बल पर कई देशों पर अधिकार कर लिया। लोग सिकंदर को क्रूर और खूनी समझकर उसके नाम से कांप उठते थे। एक वृद्धा जब सिकंदर की क्रूरता सुनती, तो उसे बहुत दुख होता। वह कहा करती, खून बहाकर इकट्ठा की गई संपत्ति से सुख-शांति नहीं मिलती। कोई सिकंदर को यह बात क्यों नहीं बताता?

एक दिन सिकंदर ने एक नगर को चारों तरफ से घेर लिया। जब उसे भूख लगी, तो उसने एक मकान का दरवाजा खटखटाया। दरवाजा उसी वृद्धा ने खोला। सैनिक वेश में खड़े व्यक्ति को देखकर ही वह समझ गई कि यह सिकंदर है।

सिकंदर ने कहा, मैं भूखा हूं, कुछ खाने को दो। वृद्धा अंदर गई और कपड़े से ढकी थाली लेकर लौटी। सिकंदर ने कपड़ा हटाया, तो भोजन की जगह सोने के जेवरात देख बोला, क्या ये मेरी भूख मिटा सकते हैं? वृद्धा ने निर्भीकता से कहा, यदि तुम्हारी भूख रोटियों से मिटती, तो तुम अपना देश छोड़कर यहां संपत्ति लूटने क्यों आते? मेरे जीवन की कमाई का यह सोना ले जाओ, पर मेरे नगर पर चढ़ाई न करो।

वृद्धा के शब्दों ने सिकंदर को झकझोर दिया। वह उसके चरणों में झुक गया। वृद्धा ने प्रेम से उसे भरपेट भोजन कराया। सिकंदर उस नगर को जीते बिना ही वापस चला गया।

नमो के विकास का तिलिस्म


  जलेबी छन रही है और दिमाग घूम रहा है। चाशनी विकास की है, घी 'इंडिया फर्स्ट' मार्का 'सेकुलरिज्म' का है, जलेबी छाननेवाला कपड़ा 'पिछड़े' थान का है, कड़ाही सरदार पटेल छाप 'राष्ट्रीय एकता' के लोहे की है, आग हिन्दुत्व की है और हलवाई 'हिंदू राष्ट्रवादी' है!

पिछले साल भर से भाजपा राजनीति का जो तिलिस्मी मंतर ढूंढ रही थी, उसकी शक्ल अब कुछ साफ होने लगी है। इसमें मुसलमानों के लिए विजन डाक्यूमेंट भी है, और उसकी काट के लिए 'कुत्ते के पिल्ले' का मुहावरा भी। युवाओं और कॉरपोरेट को रिझाने के लिए विकास का 'पॉवर प्वाइंट प्रेजेंटेशन' है, तो पिछड़ों के लिए 'चाय बेचनेवाले पिछड़ी जाति के एक बालक' के तमाम काले पहाड़ों को लांघ कर 'महाविजेता' बन जाने की 'मर्मस्पर्शी और प्रेरणादायक' कहानी भी।

परंपरागत मतदाताओं के लिए राम मंदिर, हिंदुत्व और अब हिंदू राष्ट्रवाद का भगवा ध्वज है, चीन और पाकिस्तान को नाकों चने चबवा देने के लिए 'पटेलवाला लोहा' भी, और अंतरराष्ट्रीय मंच पर हामी भराने के लिए खास तौर पर 'कस्टमाइज्ड सेकुलरिज्म' का मुखौटा भी है।

हमारे बचपन में कागज और सेलुलाइड के मामूली-से खिलौने हुआ करते थे और हम उन्हीं से खुश हो लिया करते थे। तब कागज का एक खिलौना हमें बड़ा जादुई-सा लगता था। वह छपा हुआ एक चित्र होता था। एक तरफ से देखो, तो 'चोटी वाले पंडित जी' दिखते थे और उसके उलट 'दाढ़ी वाले मुल्ला जी'। ऐसे ही एक और खिलौना होता था, जिसमें अलग-अलग कोणों पर छोटे-छोटे दर्पण लगे होते थे और अंदर कई रंगों की चूड़ियों के टूटे हुए टुकड़े भरे होते थे। उसे जब हिला कर देखिए, अंदर चूड़ियों के टुकड़ों से हर बार नई डिजाइन बन जाया करती थी। भाजपा भी इस बार कुछ-कुछ ऐसा ही, कई-कई मुखों वाला 'नमो विकास तलिस्मान' गढ़ रही है। इसकी खासियत यह होगी कि इसे आप जिधर से भी देखेंगे, विकास अलग डिजाइन का, अलग रंग का, आपकी पसंद का दिखने लगेगा!

दरअसल, भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का मानना है कि 2014 का चुनाव उनके लिए जाने-अनजाने ही 'अभी नहीं, तो कभी नहीं' की एक अभूतपूर्व स्थिति लेकर उपस्थित हो रहा है। जरा आज की तुलना कीजिए 1991- 1996 के नरसिंह राव के दौर से। राम जन्मभूमि आंदोलन की परिणति के तौर पर 1992 में बाबरी मसजिद ध्वस्त हो चुकी थी। अयोध्या प्रकरण ही नहीं, बल्कि अपने पूरे कार्यकाल में नरसिंह राव सरकार तमाम दूसरे मुद्दों पर भी अकर्मण्यता के कारण बदनाम रही। भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले सामने आए और खुद नरसिंह राव भी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे। कांग्रेस में राव को लेकर विरोध चरम पर पहुंच गया और अंततः अर्जुन सिंह और नारायणदत्त तिवारी के नेतृत्व में 1995 में विरोधियों के एक धड़े ने अलग पार्टी बना ली। सच तो यह है कि 1996 में स्थिति आज से कहीं ज्यादा खराब थी।

आज मनमोहन सरकार को लेकर जनता में जो नकारात्मक छवि बनी है, ठीक उन्हीं स्थितियों में तब राव सरकार दिख रही थी, लेकिन तब चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस टूट चुकी थी और भाजपा का उत्साह बढ़ा हुआ था। इसके बावजूद भाजपा कुल 161 सीटें ही जीत पाई। अटल जी तेरह दिन के प्रधानमंत्री बने और फिर देवेगौड़ा-गुजराल युग में सरकार दो साल तक घिसटी। 1998 और 1999 के चुनावों में भाजपा ने क्रमशः 179 और 182 सीटें जीतीं। कारण यही था कि लोग देवेगौड़ा-गुजराल युग की अधर में अटकी सरकारों से बेहतर विकल्प चाहते थे और कांग्रेस के पास उस समय प्रभावी नेतृत्व नहीं था। इसलिए भाजपा कुछ खास किए बिना भी 'लाचारी' के एक विकल्प के तौर पर उभरी।

आज भाजपा को 1996 की स्थितियां दिख रही हैं। सरकार की छवि खराब है, ठीक राव सरकार की तरह। कांग्रेस में 1996 जैसा संकट तो नहीं, पर नेतृत्व को लेकर ऊहापोह है। राहुल गांधी को आग के दरिया में झोंक दिया जाए या नहीं, यह सवाल उसके सामने है। विकास की गति धीमी पड़ने, महंगाई बढ़ते जाने, हर मोर्चे पर सरकार के 'ढीले-ढाले-से' दिखनेवाले रवैये, भ्रष्टाचार समेत सभी बड़े मुद्दों पर प्रधानमंत्री की 'किंकर्तव्यविमूढ़ता' की स्थिति से उपजी निराशाओं के बीच भाजपा को यदि लगता है कि वह नमो ब्रह्मास्त्र से मैदान मार लेगी, तो उसकी 'हाइपोथीसिस' अपनी जगह गलत नहीं है।

1996 में भाजपा के पास सिर्फ एक कुंजी थी, राम मंदिर की। और वह तब के अनुभवों से सबक लेकर सिर्फ एकमुंही चाबी पर दांव नहीं लगाना चाहती। उसे ऐसी 'मास्टर की' चाहिए, जिसमें तरह-तरह के करतब भरे पड़े हों। इस बार भाजपा कम से कम 182 सीटों के आंकड़े को पाना चाहेगी। और यह आएगा कहां से? उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और उत्तराखंड से ही वह कुछ सीटें बढ़ा सकती है, जहां उसका प्रदर्शन पिछले चुनाव में बहुत खराब था। कुछ सीटें वह मध्य प्रदेश, बिहार और गुजरात से बढ़ा लेने की रणनीति बना सकती है। बस।

इसलिए उत्तर प्रदेश का किला भेदने के लिए अमित शाह की तैनाती के साथ हिंदुत्व की बांग लगाई गई है और नरेंद्र मोदी ने खुद को हिंदू राष्ट्रवादी बता दिया है। उधर, विश्व हिंदू परिषद ने 25 अगस्त से 13 सितंबर तक अयोध्या में 84 कोसी परिक्रमा की घोषणा कर ही दी है। यह यूपी का गेमप्लान हुआ, जिसका लाभ राजस्थान, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश और गुजरात में मिल सकता है। लेकिन बिहार में हिंदुत्व के बजाय नरेंद्र मोदी के पिछड़ा होने का कार्ड खेला जाएगा, तो देश के बाकी हिस्सों में 'नमो तलिस्मान' का जो कोण जहां फिट होगा, वहां उसे दिखाया जाएगा। तो अब जाकर अपने दिमाग की बत्ती भी जल गई कि जो जलेबी छन रही है, उसका मतलब क्या है। अब यह भी आराम से कहा जा सकता है कि अगर नीतीश कुमार भाजपा के साथ बने रह गए होते, तो खासे बेवकूफ बने होते।

हर साल मिट्टी संग बह जाते हैं अरबों रुपये

लखनऊ। उत्तर प्रदेश में मानसून के आने से पहले हर साल नदियों पर तटबंध दुरुस्त करने और बांधों के रख-रखाव के लिए अरबों रुपये जारी किए जाते हैं, लेकिन फिर भी तटबंधों के टूट जाने के कारण न सिर्फ हजारों हेक्टेयर फसल जलमग्न हो जाती है, बल्कि लोग अपने घर छोड़ने के लिए भी विवश होते हैं। कुशीनगर में नारायणी नदी के किनारे बने तटबंधों के रखरखाव पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च होते हैं, इसके बावजूद हर साल ये तटबंध टूट ही जाते हैं। आखिर क्यों?

नारायणी नदी (बड़ी गंडक) हिमालय के धौलागिरि पर्वत से निकलकर तिब्बत, नेपाल और भारत के हजारों वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को प्रभावित करती है। नेपाल के वाल्मीकिनगर (त्रिवेणी) बैराज के पास भारत में प्रवेश करती है और बिहार के कुछ क्षेत्रों से उत्तर प्रदेश के महराजगंज, कुशीनगर होते हुए पुन: बिहार में प्रवेश कर जाती हैं।

15 जून से 15 अक्टूबर तक बरसात के समय नदी में बाढ़ का खतरा बना रहता है। नदी के तटबंधों की लंबाई नेपाल में 24 किलोमीटर, उत्तर प्रदेश में 106 किलोमीटर और बिहार में 40 किलोमीटर, अर्थात कुल 170 किलोमीटर है। इन तटबंधों की मरम्मत के लिए सरकार हर साल करोड़ों रुपये खर्च करती है।

वर्ष 1968-69 में छितौनी बांध, 1971-72 में नौतार बांध, 1972-73 में रेलवे इक्विपमेंट बांध, 1982 में कटाई भरपुरवा बांध, 1980-81 में सीपी तटबंध बांध, 1980-81 में अमवाखास बांध, 1980-81 में अमवा रिंगबांध का निर्माण कराया गया था।

इसके बाद 1985 के आस-पास पिपरासी रिटायर बांध, अहिरौली-पिपराघाट कट एक और दो, जमींदारी बांध, 1975 में एपी एक्सटेंशन बांध, 1975 में नरवाजोत बांध, 1990-91 में एपी एप्रोच रोड आदि सैकड़ों किलोमीटर लंबे बांध उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बनवाए गए।

जहां तक खर्च का सवाल है, वर्ष 1968-69 में छितौनी बांध पर 04 करोड़ 68 लाख 82 हजार रुपये, 1971-72 में बने नौतार बांध पर 13 करोड़ रुपये, 1972-73 में बने रेलवे इक्विपमेंट बांध पर 464 लाख रुपये खर्च हुए। इस तरह अन्य बांधों के निर्माण में भी करोड़ों रुपये खर्च हुए।

कुछ वर्ष पहले तक केवल रखरखाव में ही छितौनी बांध पर 84 करोड़ रुपये, नौतार बांध पर 22 करोड़ रुपये और रेलवे बांध पर 66.5 करोड़ रुपये खर्च किए गए। इसी तरह अन्य बांधों के रखरखाव पर अब तक 50 अरब से ज्यादा रुपये खर्च हो चुके हैं।

जाहिर है, यदि सही नीति और नीयत से कार्य हुआ होता तो इतने खर्च में सीमेंट के बांध बना दिए गए होते, जिससे हर साल बाढ़ के खतरे से लोगों को निजात मिल जाती, मगर मिट्टी कार्य करवाकर महज खानापूर्ति की जाती है।

कुशीनगर के सहायक अभियंता उत्कर्ष भारद्वाज का कहना है किनदी अक्सर अपना रुख बदलती रहती है। इसकी धारा बदलने से कटान होता रहता है। ऐसे में सुरक्षा के लिए बांध बनाना पड़ता है। इस काम में धन खर्च होना लाजिमी है।