Sunday, December 2, 2012


आतंक से जंग अभी बाकी है

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यह मान लेना भूल होगी कि अजमल आमिर कसाब को फांसी के फंदे तक पहुंचाकर हमने आतंकवाद को करारी शिकस्त दी है। यह सिर्फ एक लंबी लड़ाई का तार्किक मुकाम है। मंजिल इतनी दूर है कि अभी उसका कोई अता-पता नहीं दिखाई दे रहा। अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले मैं जनरल परवेज मुशर्रफ के तर्क से आपको रूबरू कराना चाहूंगा। वह पिछले दिनों ‘हिन्दुस्तान टाइम्स सम्मिट’ में भाग लेने के लिए नई दिल्ली आए थे। अपने लंबे भाषण में उन्होंने भारत-पाक रिश्तों पर टिप्पणी करते हुए एक हकीकत बयान की। जनरल का मानना है कि दोनों देशों का अवाम दोस्ती चाहता है, लेकिन गुप्तचर संस्थाओं ने इसे नाक का मुद्दा बना रखा है। वे तिल का ताड़ बनाती हैं और इससे राजनेताओं के मन में शंकाओं के बरगद जन्म ले लेते हैं। जनरल साहब ने जिंदगी भर सेना में नौकरी की और बाद के दिनों में सत्ता हथियाकर सियासत का चोला पहन लिया। अब वह पूरी दुनिया में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर जाने जाते हैं और बड़े इत्मीनान से सत्य को तर्को की चाशनी में लपेटकर, मीठी गोली की तरह लोगों के सामने पेश कर देते हैं।
अपने देश से जलावतनी भुगत रहे परवेज मुशर्रफ की आमदनी का यह भी एक जरिया है। अब पूरी दुनिया से उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इसके बदले में जो रकम उन्हें हासिल होती है, वह उन्हें ‘अमीर’ तो नहीं बनाती, पर इतना जरूर है कि वह ‘आराम’ से रहते हैं और ‘संतुष्ट’ हैं। भारत में जनरल के जितने प्रशंसक हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग उनके खिलाफ हैं। वह कारगिल के वास्तुकार के तौर पर जाने जाते हैं। हालांकि, यह सच है कि उसके बाद आगरा आकर उन्होंने इस कलंक को धोने की कोशिश की। उनका यह धब्बा इससे हल्का जरूर पड़ा, पर भारत को कितना फायदा हुआ? इसके बाद भी हमारे देश में बम विस्फोट होते रहे। खुद कसाब इसका बड़ा उदाहरण है। यह सच है कि दोनों देशों की जनता लड़ाई नहीं चाहती, पर यह भी झूठ नहीं है कि सरहद के दोनों ओर मोहब्बत और नफरत का दरिया भी बराबरी से बहता है। मेहदी हसन और गुलाम अली की गजलों पर गूंजती तालियों की गड़गड़ाहटें अगर सीमाओं की मोहताज नहीं हैं, तो इसमें भी सच्चाई है कि एक क्रिकेट या हॉकी मैच पुराने घावों को हरा करने के लिए काफी है।
इन दिनों एक टेलीविजन चैनल पर दोनों देशों के उभरते हुए गायक अपनी मौसिकी का जलवा दिखा रहे हैं। एक व्यावसायिक प्रतियोगिता के प्रतिभागी होने के नाते इनमें से किसी एक को विजेता बनना है। मुझे अचरज होता है, जब खूबसूरत एंकर यह कहती है कि अमुक ने अपने देश का नाम ऊंचा किया। प्रतियोगी भी सीना चौड़ा कर अपने गायन को देश के प्रति अपनी वफादारी और जिम्मेदारी से जोड़ते नजर आते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मायानगरी मुंबई के कारोबारी जन भावनाओं को भुनाना जानते हैं। इस शो की लोकप्रियता इस बात का उदाहरण है कि भारत-पाक रिश्तों की कड़वाहट को बेचा भी जा सकता है।
सवाल उठता है कि जहर की इस फसल को किसने बोया? बड़ा आसान है कुछ राजनेताओं को दोष दे देना। पर यह सच है कि दोनों ही मुल्कों के नेताओं ने जब कभी पूरे मन से इस खाई को पाटने की कोशिश की, तो उन्हीं के सहयोगियों ने उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया। आप याद करें। पाकिस्तान बनने के तत्काल बाद मोहम्मद अली जिन्ना से किसी ने पूछा था कि अगर भारत पर कोई हमला कर दे, तो पाकिस्तान की फौज क्या करेगी? उनका जवाब था कि हम मिलकर उससे लड़ेंगे। यह ठीक है कि पाकिस्तान के कायदे आजम और हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन नहीं मिलते थे। कुछ इतिहासकार उनकी निजी खुन्नस की आड़ में बंटवारे के  शोले भड़कते देखते हैं, पर यह भी सच है कि कई बार जवाहरलाल नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल की इच्छा के खिलाफ पाकिस्तान के पक्ष में फैसले किए। दोनों देश किसी मकसद पर पहुंचते, इससे पहले ही जिन्ना चले गए।
नेहरू की मौत के बाद 1965 की लड़ाई ने जाहिर कर दिया कि ये मुल्क अब लंबे समय तक एक रास्ते पर नहीं चलेंगे। दोनों ओर बड़ी संख्या में मौजूद शरणार्थी नफरत की आंधी को बल दे रहे थे। उन्हें दो शिकायतें थीं। पहली तो यह कि बंटवारे के दौरान उनके पुराने पड़ोसियों ने ही उनके साथ बदसलूकी की। दूसरी, इन शरणार्थियों को अपनी नई जमीन पर भी फलने-फूलने का, उनकी इच्छानुसार मौका नहीं मिल रहा था। पाकिस्तान में वे मुहाजिर कहलाते थे और भारत में शरणार्थी। परवेज मुशर्रफ पर आरोप है कि उन्होंने कारगिल सिर्फ इसलिए रचा, क्योंकि वह पहले मुहाजिर सेनाध्यक्ष थे। उन्हें अपनी वफादारी दर्शानी थी और इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान को एक बार फिर से जिल्लत का सामना करवाने का जोखिम उठाया। मैं यहां यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि पाकिस्तानी सेना में कट्टरपंथी तत्वों का लगातार बोलबाला होता गया, इसीलिए वहां जब भी लोकतांत्रिक सरकारों ने सुलह की कोशिश की, संगीनों के बल पर मुल्क को फिर से नफरत के अलाव में झोंक दिया गया।
शिमला समझौते के बाद भुट्टो और इंदिरा गांधी भारत और पाकिस्तान के बीच नई दोस्ती की बुनियाद रखना चाहते थे। जनरल जियाउल हक ने पहले उन्हें अपदस्थ कर जेल भेजा और बाद में उन्हें तख्ते पर लटका दिया। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद नवाज शरीफ का भी बुरा हाल हुआ। उनकी जान तो बच गई, पर सत्ता गंवानी पड़ी।
जियाउल हक ने हुकूमत संभालने के बाद भारत से सीधी लड़ाई मोल नहीं ली। उन्होंने आईएसआई को मजबूत बनाकर हमारे पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद की बयार चला दी। मुशर्रफ के समय में भी आईएसआई को मनमर्जी की छूट मिली। वह कभी अपने बॉस रहे जनरल हक से कुछ कदम आगे बढ़ गए।
कारगिल में लगी आग इसका प्रमाण है। आशय यह है कि अगर हमें कुछ और कसाब नहीं चाहिए, तो सबसे पहले पाकिस्तान के राजनेताओं को अपने देश को ‘भारत भय की ग्रंथि’ से मुक्त कराना होगा। वे जब तक ऐसा नहीं करेंगे, तब तक दहशतगर्दों की दुकानें वहां फलती-फूलती रहेंगी। हमारे यहां एक स्थापित लोकतंत्र है और राष्ट्रीय एकता के मामले में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत साझा राय रखता है। हमारी राष्ट्रीयता किसी से नफरत पर नहीं, बल्कि अपनी ‘बहुलता में एकता’ की ऐतिहासिक नींव पर टिकी हुई है। इसके उलट पाकिस्तान अब भी सामंती और कबीलाई संघर्षों में उलझा हुआ है। उसे सिर्फ भारत विरोध के नाम पर लंबे समय तक एक नहीं रखा जा सकता और हमारे देश में आतंकवाद का निर्यात कर वे खुद भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
पिछले चार साल में भारत से कहीं ज्यादा हमले पाकिस्तान के अंदर हुए हैं। जब तक वहां की सेना, गुप्तचर संस्थाएं और लोकतांत्रिक संगठन इस सच को स्वीकार नहीं कर लेते कि उनके द्वारा पैदा किया गया भस्मासुर उन्हीं के लिए खतरा बन गया है, तब तक मजबूरन हमें भी कसाब जैसे लोगों से निपटने के लिए अभिशप्त रहना पड़ेगा। इसलिए बहुत खुश मत होइए, जंग अभी बाकी है।

खुद आईना देखें, उसे दिखाने वाले

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अपनी सनसनीखेज खबरों के जरिये दुनिया के तमाम सत्ता नायकों को दहला देने वाले जूलियन असांज की हालत गंभीर है और लंदन स्थित इक्वाडोर के दूतावास में उनका इलाज चल रहा है। भारत में दो वरिष्ठ पत्रकार तिहाड़ जेल में न्यायिक हिरासत गुजार रहे हैं। उधर ब्रिटेन में हर रोज ठंडे पड़ते मौसम में एक न्यायमूर्ति की रिपोर्ट के बाद बहस गरम है कि क्यों न मीडिया के लिए आचार संहिता लागू कर दी जाए? ये तीन खबरें दो अलग महाद्वीपों से आई हैं, परंतु इनकी ध्वनि एक है- मीडिया जटिल सवालों के घेरे में है, उसकी विश्वसनीयता दांव पर लगी हुई है।
असांज ने पिछले छह महीने से इक्वाडोर के दूतावास में शरण ली हुई है। विभिन्न देशों में उन पर तरह-तरह के मुकदमे हैं, जो शायद कभी आकार ही नहीं लेते, अगर उन्होंने संसार के सबसे ताकतवर लोगों से अदावत मोल न ली होती। अब जब वह फेफड़ों के गंभीर संक्रमण से ग्रस्त हैं, तो सवाल उठने लाजिमी हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हिरासत के दौरान उन्हें कुछ ऐसा दे दिया गया, जो इस वक्त उनके लिए घातक साबित हो रहा है? यदि इस पर जांच की मांग की जाए, तो दिक्कत यही है कि उन्हें उन्हीं लोगों से जूझना होगा, जो आरोपी होने के साथ मुन्सिफ भी हैं। ऐसा नहीं होता, तो उन्हें दर-बदर होने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। पर क्या बात सिर्फ इतनी सी है कि सत्ताधीशों से उलझना दिक्कतों को दावत देना है? कहीं यह एक चालू मुहावरा तो नहीं बन गया है?
इंग्लैंड से बात शुरू करते हैं। जब यह खबर आई कि संसार के सबसे ताकतवर मीडिया मुगल रुपर्ट मर्डोक के अखबार ने कुछ लोगों के फोन हैक कराए, तो सनसनी मच गई। ब्रिटेन के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था। इससे इतनी हाय-तौबा मची कि मर्डोक को अखबार बंद करना पड़ा और संपादक सहित वरिष्ठ अधिकारियों को जेल की हवा भी खानी पड़ गई। तब भी सवाल उठे थे कि आजादी के नाम पर क्या मीडिया उच्छृंखल हो गया है? क्या उसने लोगों की निजी जिंदगियों में झांकना शुरू कर दिया है? क्या उसने उस लक्ष्मण रेखा की चिंता करनी छोड़ दी है, जो उसे मर्यादा का सुरक्षा कवच प्रदान करती आई है?
हर लोकतंत्र की तरह ब्रिटेन में यह बहस सामाजिक हलकों का हिस्सा बनकर बदलाव लाती, उससे पहले ही राजनीतिक तंत्र ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। तरह-तरह के आरोप उछलने लगे और सोशल मीडिया सच्चे-झूठे, किस्सों से भर गया। इसी दौरान लॉर्ड लेवेसन की अगुवाई में एक आयोग का गठन किया गया। 17 महीनों की पड़ताल के बाद न्यायमूर्ति लेवेसन ने जो निष्कर्ष निकाले, उसने मीडिया संस्थानों को हिलाकर रख दिया है। उनका सुझाव है कि एक ऐसी निगरानी संस्था बनाई जाए, जिसमें सांसद और मीडिया के प्रतिनिधि शामिल हों। यह इतनी ताकतवर हो कि उसे ‘उद्योग और सरकार’ प्रभावित न कर सकें।
इस संस्था को आचार संहिता भंग होने की स्थिति में जांच करने के पूरे अधिकार होने चाहिए। यदि आरोप सही साबित होते हैं, तो संबंधित मीडिया संस्थान के कुल टर्नओवर का एक प्रतिशत या दस लाख पाउंड जुर्माने तक की सजा सुनाने का हक भी इसके हाथ में होना चाहिए। इस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट में एक सुझाव यह भी है कि मीडिया इंडस्ट्री को अपने लिए, अपनी तरफ से ऐसी संस्था बनानी चाहिए, जो उसके खिलाफ लगने वाले आरोपों की जांच कर सके और फैसले सुना सके।
इस जांच दल ने कुछ खबरों और उनके परिणामों की भी गहनता से जांच की। लॉर्ड लेवेसन के अनुसार, गलत अथवा भ्रामक रिपोर्टिंग की वजह से जन-धन की हानि हुई। कहने की जरूरत नहीं कि गए शुक्रवार को इस रिपोर्ट के आने के बाद से ब्रिटिश प्रेस में हंगामा मच गया है। पत्रकारों ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा बताया है। आने वाले दिनों में वहां क्या कुछ होता है, यह देखना दिलचस्प रहेगा।
अब आते हैं भारत पर। एक नामचीन मीडिया समूह के दो वरिष्ठ संपादक इस समय अवैध वसूली के आरोप में न्यायिक हिरासत में हैं। एक कांग्रेसी सांसद का आरोप है कि इन लोगों ने उनसे खबर की एवज में 100 करोड़ रुपये की मांग की। उनके लोगों ने इस बातचीत को कैमरे में कैद कर सीडी दिल्ली पुलिस की विशेष अपराध शाखा के हवाले कर दी। पुलिस का दावा है कि विधिवत जांच के दौरान सीडी सही पाई गई। इसी के आधार पर उन्होंने कार्रवाई की। सवाल उठ रहे हैं कि क्या पुलिस ने अति सक्रियता दिखाई? जाहिर तौर पर मीडिया समूह ने नवीन जिंदल के आरोपों का खंडन करते हुए आरोप लगाया है कि सरकार मीडिया की आजादी का गला घोटने पर आमादा है।
मामला अब अदालत में पहुंच गया है, इसलिए इस सिलसिले में ज्यादा बात करने की बजाय हम क्यों न उन सिद्धांतों पर चर्चा करें, जिनके बल पर पूरे संसार के पत्रकार आज तक अपना सीना चौड़ा करके चलते रहे हैं? हम सभी को पत्रकारिता की किताबों में पढ़ाया गया है कि हमारा काम संविधानसम्मत, सामाजिक मर्यादाओं के अनुकूल और जन साधारण के हित में होना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा है? अक्सर लोग आरोप लगाते हैं कि व्यवसायीकरण ने मीडिया को गलत रास्ते पर ला पटका है। क्या वाकई ऐसा है?
यह ठीक है कि मीडिया व्यावसायिक हो गया है। यह भी सही है कि उसे लाभ-हानि के तराजू में तोला जाता है। ठीक यह भी है कि तमाम मीडिया कंपनियां शेयर बाजारों में लिस्टेड हैं और हर तीन महीने में अपने नफे-नुकसान का ब्योरा पेश करती हैं। मैं पूछता हूं कि इसमें हर्ज क्या है? एक अखबार, न्यूज चैनल या खबरिया वेबसाइट अपने उपयोगकर्ता से वायदा क्या करती है? यही कि हम आप तक खबर और विचार पहुंचाएंगे। पता नहीं क्यों, हम भूल जाते हैं कि समाचार का अकेला, और सिर्फ अकेला तत्व ‘सत्य’ है।
अगर सच के साथ छेड़छाड़ की गई है, तो वह कहानी हो सकती है, खबर नहीं। अब पत्रकारों को तय करना है कि उनकी पेशेवर नैतिकता क्या है? वे खबर लिखना और दिखाना चाहते हैं या कहानी? भूलिए मत, इस देश को मसालेदार कहानियों के मुकाबले खबरों की ज्यादा जरूरत है। इसीलिए आज भी वही अखबार या चैनल प्रतिष्ठा पाते हैं, जो सच पर अडिग रहते हैं।
एक बात और। अगर समाज को पेशेवर डॉक्टर, शिक्षक या वकील की जरूरत है, तो प्रोफेशनल पत्रकार की क्यों नहीं? फिर यह कहने में संकोच क्यों कि हम पेशेवर तौर पर सच बोलने और लिखने वाले हैं। पर इसके लिए सच बोलने-लिखने वालों को सत्य की राह पर ही चलना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं, तो फिर मीडिया के लिए भारी-भरकम कानून और आचार संहिताएं बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर कानूनों से होता भी क्या है? तमाम संहिताओं के बावजूद यदि शताब्दियां बीत जाने पर भी अपराध नहीं रुके, अपराधी खत्म नहीं हुए, तो मीडिया पर चाबुक चलाने से क्या हो जाएगा?
यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया पर हंटर का तर्क हमारे चाल, चरित्र और चेहरे में आए बदलाव के बाद उठा है। यह मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी मांग है कि लोगों को आईना दिखाने वाले खुद अपना चेहरा उसी आईने में देखें और अपने लिए सही रास्ते का चुनाव करें। कुछ लोगों की करतूत से हमेशा के लिए शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है।