संयम बनाता उज्जवल व्यक्तित्व
"संयम के ही स्कूल में
उज्जवल व्यक्तित्व बनता है।" पवित्रता का बोध सरल है। ब्रह्मचर्य के
आदर्श तथा विवाहित जीवन की मांगलिकता का मनोरम वर्णन करना और पवित्र जीवन
से इहलोक एवं परलोक में होने वाले लाभ गिना देना भी सरल बात है परंतु
वास्तविक काम तो इन बातों को कहने-सुनने के बाद ही शुरू होता है।
कक्षा में पाठ चला। अब उसे ठीक से समझकर, लिखकर, विचारकर, पचाकर तैयार करने
की जिम्मेदारी विद्यार्थी की है।हृदय में बीज पड़ा। उसका सिंचन,
रक्षण, पोषण करके, उसमें से वृक्ष पैदा करने की जिम्मेदारी जीवन-कृषक की
है।शुद्ध-जीवन का गौरव इसमें ही समाया हुआ है कि वह बाहर से मंगाई
हुई चीज नहीं बल्कि अंतर की प्रेरणा और आत्म-प्रयत्न से प्राप्त की हुई
सिद्धि है। रटे हुए पाठ और स्वप्रयत्न से हल किए हुए सवाल के बीच जितना
अंतर है, उतना ही इनमें है। व्यक्तित्व-निर्माण का काम स्वयं व्यक्ति का
है, यही इसका सीधा अर्थ हुआ। आदर्श तथा पवित्र जीवन की बातें सुनकर
अगर कोई कहे कि "तुम्हारी बात सच्ची, लेकिन मुझे अपना व्यसन प्रिय" तो फिर
बात ही खत्म। बेशक ऐसी स्पष्टता से कहने वाला तो कोई ही मिलता है।
वास्तविक जोखम तो उन युवकों के लिए है, जो कुछ उदासीनता से और लाचारी से
विनयपूर्वक कहते हैं, "तुम्हारी बात सच्ची; तुम्हारा आदर्श अच्छा; लेकिन हम
रहे कलियुग के जीव, बीसवीं सदी के संसार में ऋषियों का-सा जीवन जीना संभव
नहीं। मर्यादा जितनी पालन हो सकेगी, उतनी पालन करेंगे। लेकिन जमाने के
अनुकूल हुए बिना कोई छुटकारा नहीं।इस प्रकार, आदर्श और व्यवहार के
बीच समझौता करने का वे प्रयत्न करते हैं। बातें अच्छी सुनते हैं, कर्म
खराब किए जाते हैं। एक हाथ से भगवान की ओर दूसरे हाथ से संसार की आरती
उतारते हैं।इस नाटक में जोखिम है। इस समाधान में कुटिल
व्यापार-बुद्धि है। इस मिश्र प्रयोग में निष्फलता के बीज हैं। एक म्यान में
दो तलवारें नहीं रहतीं।व्यसन और वह भी अशुद्धता का- चिकनी चीज
हैं, चिपक जाता है, लिपट जाता है और चिमट जाता है। सूक्ष्म तार द्वारा वज्र
का बंधन बनाता है, मकड़ी के जाले गूंथकर कैदखाने की दीवार बांधता है।प्रथम
यह, नम्र-भाव से सुख देने और सेवा करने का यकीन दिलाता है; लेकिन मौका
देखकर ढोंग छोड़ देता है और उद्धत वन आत्मा के सिंहासन पर बैठ जाता है। इस
नौकर को घर के अंदर पैर रखने दोगे, तो उसके गुलाम होने की तुम्हारी बारी आ
जाएगी।
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