Friday, August 31, 2012

 देश भक्ति और जन सेवा
होली हो दिवाली हो या कोई भी त्योहार हो  देश की जनता की देश भक्ति और जन सेवा के नारे के साथ सेवा करने वाली पुलिस को उपहार स्वरूप तिरस्कार झेलना पड़ता है। सच माने तो सन् 1861 में बने पुलिस एक्ट में आज तक संशोधन नहीं हुआ परिणाम स्वरूप पुलिस की छवि अंग्रेजों के समय की ही तरह क्रूर बनी हुई है, विचार की जाने वाली बात यह है कि जब पुलिस जनता के लिए है तो जनता और पुलिस के बीच संबंधों में मध्ुारता क्यों नही आ सकती है? आज जनता पुलिस का सम्मान नाग की पूजा की तरह करती है जो कि भय वश होता है।
    क्या पुलिसकर्मी की निजी जिंदगी नहीं होती? सरकार ने पुलिस के कार्य अवधि का निर्धारण तो नहीं किया साथ ही उनको सौंपी जाने वाली जिम्मेदारियों का भी कोई आकार तय नहीं किया। क्या सरकार इन्हें इन्सान नहीं समझती है अगर सरकार इन्हें इन्सान समझती तो इनके ही समकक्ष अन्य सरकारी कर्मचारियों को साल के 365 दिनों में 52 रविवार 25 शासकीय अवकाश 104 अर्ध अवकाश तथा 30 दिन का अर्जित अवकाश दिया जाता है जो एक वर्ष के 1200 घंटे होते हैं इसके विपरीत पुलिस विभाग को शासन द्वारा 61 छुट्टीयां दी जाती हैं जिनमें 30 दिन का अर्जित अवकाश, 15 दिन का विशेष अवकाश व 16 दिन का आकस्मिक अवकाश दिया गया हैं। लेकिन मध्यप्रदेश में लगभग पुलिस और जनता का अनुपात 1000 में 1 पुलिसकर्मी है। इस कारण से वे इस लाभ से वंचित उपयोग रह जाते हैं। इसके विपरीत पुलिस दिन में 18 घंटे तनाव एवं व्यस्ततापूर्ण बिताते हुए एक वर्ष में 6570 घंटे कार्य करती हैं। पुलिस के कार्य की प्रगति शारीरिक मानसिक व्यस्तता  के साथ-साथ उतनी ही जोखिम भरी हैं। तो क्या इतनी व्यस्तता के अलावा पुलिसकर्मियों को अधिकार नहीं हैं कि वे अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर सकें। कार्य के बोझ से और शासन की अनदेखी का नतीजा है कि समाचार पत्रों में पुलिसकर्मियों के आत्महत्या की खबर अक्सर प्रकाशित होती रहती है। अक्सर लोग कहते हैं कि जनता के प्रति पुलिस का क्या दायित्व है पर ये कोई क्यों नहीं सोचता कि जनता के भी कुछ दायित्व पुलिस के लिए हैं जो जनता भूल चुकी है सच मानें तो पुलिस विभाग के पास एक ऐसा सशक्त जनसंपर्क विभाग हो जो केवल जनता और पुलिस के बीच सौहाद्र पूर्ण संबंध स्थापित कर सके।

Thursday, August 30, 2012

                   कागजी फांसी
आज का दिन भारत के लिए एक एतिहासिक दिन है.आज न्यायपालिका नें अपनी तरफ से २००२  गुजरात दंगों के मामले में  ३२ को दोषी करार देने के  साथ-साथ २००८के मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के मुख्य आरोपी अजमल कसाब कद्ब  फांसी की सजा को बरकरार  रखा है.निश्चित तौर पर ये दोनों फौसले बेहद अहम फौसले है.अब तो बस हर किसी के मन एक ही सवाल उठ रहा है फै सले पर अम्ल का दिन कब आएगा या तो फिर भारतीय संसद में हमले के अभियुक्त अफजल गुरू की फांसी तरह यह फैसला सिर्फ कागजों में ही दर्ज रह जाएगा.१३दिसंबर २००१लगभग १२साल बीत चुके हैं. इस घटना से जुड़ी एक अहम बात स्म्रती में दस्तक दे रही है ,जब अफजल गुरू की दया याचिका तात्कालिक राष्ट्रपति एे.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास पेश की गई तब इस घटना में शहीद जवानों की बेवाओं नें अपनें परमवीर चक्र वापस करने की बात कही थी.आखिरकार महामहिम नें याचिका को अस्वीकार कर के सर्वोच्च न्यायलय के फै सले को बरकरार रखा. हमारे देश की बड़ी विडंम्बना की बमुश्किल कई साल लग जातें हैं . इन अहम फैसलों के लिए ,पर इन पर अमल होना तो दूर यह संसद में बहस का मुद्दा बन के रह जाता है.और बस रह जाती है कागजी फांसी .....