Sunday, December 2, 2012


आतंक से जंग अभी बाकी है

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यह मान लेना भूल होगी कि अजमल आमिर कसाब को फांसी के फंदे तक पहुंचाकर हमने आतंकवाद को करारी शिकस्त दी है। यह सिर्फ एक लंबी लड़ाई का तार्किक मुकाम है। मंजिल इतनी दूर है कि अभी उसका कोई अता-पता नहीं दिखाई दे रहा। अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले मैं जनरल परवेज मुशर्रफ के तर्क से आपको रूबरू कराना चाहूंगा। वह पिछले दिनों ‘हिन्दुस्तान टाइम्स सम्मिट’ में भाग लेने के लिए नई दिल्ली आए थे। अपने लंबे भाषण में उन्होंने भारत-पाक रिश्तों पर टिप्पणी करते हुए एक हकीकत बयान की। जनरल का मानना है कि दोनों देशों का अवाम दोस्ती चाहता है, लेकिन गुप्तचर संस्थाओं ने इसे नाक का मुद्दा बना रखा है। वे तिल का ताड़ बनाती हैं और इससे राजनेताओं के मन में शंकाओं के बरगद जन्म ले लेते हैं। जनरल साहब ने जिंदगी भर सेना में नौकरी की और बाद के दिनों में सत्ता हथियाकर सियासत का चोला पहन लिया। अब वह पूरी दुनिया में पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर जाने जाते हैं और बड़े इत्मीनान से सत्य को तर्को की चाशनी में लपेटकर, मीठी गोली की तरह लोगों के सामने पेश कर देते हैं।
अपने देश से जलावतनी भुगत रहे परवेज मुशर्रफ की आमदनी का यह भी एक जरिया है। अब पूरी दुनिया से उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इसके बदले में जो रकम उन्हें हासिल होती है, वह उन्हें ‘अमीर’ तो नहीं बनाती, पर इतना जरूर है कि वह ‘आराम’ से रहते हैं और ‘संतुष्ट’ हैं। भारत में जनरल के जितने प्रशंसक हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग उनके खिलाफ हैं। वह कारगिल के वास्तुकार के तौर पर जाने जाते हैं। हालांकि, यह सच है कि उसके बाद आगरा आकर उन्होंने इस कलंक को धोने की कोशिश की। उनका यह धब्बा इससे हल्का जरूर पड़ा, पर भारत को कितना फायदा हुआ? इसके बाद भी हमारे देश में बम विस्फोट होते रहे। खुद कसाब इसका बड़ा उदाहरण है। यह सच है कि दोनों देशों की जनता लड़ाई नहीं चाहती, पर यह भी झूठ नहीं है कि सरहद के दोनों ओर मोहब्बत और नफरत का दरिया भी बराबरी से बहता है। मेहदी हसन और गुलाम अली की गजलों पर गूंजती तालियों की गड़गड़ाहटें अगर सीमाओं की मोहताज नहीं हैं, तो इसमें भी सच्चाई है कि एक क्रिकेट या हॉकी मैच पुराने घावों को हरा करने के लिए काफी है।
इन दिनों एक टेलीविजन चैनल पर दोनों देशों के उभरते हुए गायक अपनी मौसिकी का जलवा दिखा रहे हैं। एक व्यावसायिक प्रतियोगिता के प्रतिभागी होने के नाते इनमें से किसी एक को विजेता बनना है। मुझे अचरज होता है, जब खूबसूरत एंकर यह कहती है कि अमुक ने अपने देश का नाम ऊंचा किया। प्रतियोगी भी सीना चौड़ा कर अपने गायन को देश के प्रति अपनी वफादारी और जिम्मेदारी से जोड़ते नजर आते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मायानगरी मुंबई के कारोबारी जन भावनाओं को भुनाना जानते हैं। इस शो की लोकप्रियता इस बात का उदाहरण है कि भारत-पाक रिश्तों की कड़वाहट को बेचा भी जा सकता है।
सवाल उठता है कि जहर की इस फसल को किसने बोया? बड़ा आसान है कुछ राजनेताओं को दोष दे देना। पर यह सच है कि दोनों ही मुल्कों के नेताओं ने जब कभी पूरे मन से इस खाई को पाटने की कोशिश की, तो उन्हीं के सहयोगियों ने उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया। आप याद करें। पाकिस्तान बनने के तत्काल बाद मोहम्मद अली जिन्ना से किसी ने पूछा था कि अगर भारत पर कोई हमला कर दे, तो पाकिस्तान की फौज क्या करेगी? उनका जवाब था कि हम मिलकर उससे लड़ेंगे। यह ठीक है कि पाकिस्तान के कायदे आजम और हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन नहीं मिलते थे। कुछ इतिहासकार उनकी निजी खुन्नस की आड़ में बंटवारे के  शोले भड़कते देखते हैं, पर यह भी सच है कि कई बार जवाहरलाल नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल की इच्छा के खिलाफ पाकिस्तान के पक्ष में फैसले किए। दोनों देश किसी मकसद पर पहुंचते, इससे पहले ही जिन्ना चले गए।
नेहरू की मौत के बाद 1965 की लड़ाई ने जाहिर कर दिया कि ये मुल्क अब लंबे समय तक एक रास्ते पर नहीं चलेंगे। दोनों ओर बड़ी संख्या में मौजूद शरणार्थी नफरत की आंधी को बल दे रहे थे। उन्हें दो शिकायतें थीं। पहली तो यह कि बंटवारे के दौरान उनके पुराने पड़ोसियों ने ही उनके साथ बदसलूकी की। दूसरी, इन शरणार्थियों को अपनी नई जमीन पर भी फलने-फूलने का, उनकी इच्छानुसार मौका नहीं मिल रहा था। पाकिस्तान में वे मुहाजिर कहलाते थे और भारत में शरणार्थी। परवेज मुशर्रफ पर आरोप है कि उन्होंने कारगिल सिर्फ इसलिए रचा, क्योंकि वह पहले मुहाजिर सेनाध्यक्ष थे। उन्हें अपनी वफादारी दर्शानी थी और इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान को एक बार फिर से जिल्लत का सामना करवाने का जोखिम उठाया। मैं यहां यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि पाकिस्तानी सेना में कट्टरपंथी तत्वों का लगातार बोलबाला होता गया, इसीलिए वहां जब भी लोकतांत्रिक सरकारों ने सुलह की कोशिश की, संगीनों के बल पर मुल्क को फिर से नफरत के अलाव में झोंक दिया गया।
शिमला समझौते के बाद भुट्टो और इंदिरा गांधी भारत और पाकिस्तान के बीच नई दोस्ती की बुनियाद रखना चाहते थे। जनरल जियाउल हक ने पहले उन्हें अपदस्थ कर जेल भेजा और बाद में उन्हें तख्ते पर लटका दिया। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद नवाज शरीफ का भी बुरा हाल हुआ। उनकी जान तो बच गई, पर सत्ता गंवानी पड़ी।
जियाउल हक ने हुकूमत संभालने के बाद भारत से सीधी लड़ाई मोल नहीं ली। उन्होंने आईएसआई को मजबूत बनाकर हमारे पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद की बयार चला दी। मुशर्रफ के समय में भी आईएसआई को मनमर्जी की छूट मिली। वह कभी अपने बॉस रहे जनरल हक से कुछ कदम आगे बढ़ गए।
कारगिल में लगी आग इसका प्रमाण है। आशय यह है कि अगर हमें कुछ और कसाब नहीं चाहिए, तो सबसे पहले पाकिस्तान के राजनेताओं को अपने देश को ‘भारत भय की ग्रंथि’ से मुक्त कराना होगा। वे जब तक ऐसा नहीं करेंगे, तब तक दहशतगर्दों की दुकानें वहां फलती-फूलती रहेंगी। हमारे यहां एक स्थापित लोकतंत्र है और राष्ट्रीय एकता के मामले में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत साझा राय रखता है। हमारी राष्ट्रीयता किसी से नफरत पर नहीं, बल्कि अपनी ‘बहुलता में एकता’ की ऐतिहासिक नींव पर टिकी हुई है। इसके उलट पाकिस्तान अब भी सामंती और कबीलाई संघर्षों में उलझा हुआ है। उसे सिर्फ भारत विरोध के नाम पर लंबे समय तक एक नहीं रखा जा सकता और हमारे देश में आतंकवाद का निर्यात कर वे खुद भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
पिछले चार साल में भारत से कहीं ज्यादा हमले पाकिस्तान के अंदर हुए हैं। जब तक वहां की सेना, गुप्तचर संस्थाएं और लोकतांत्रिक संगठन इस सच को स्वीकार नहीं कर लेते कि उनके द्वारा पैदा किया गया भस्मासुर उन्हीं के लिए खतरा बन गया है, तब तक मजबूरन हमें भी कसाब जैसे लोगों से निपटने के लिए अभिशप्त रहना पड़ेगा। इसलिए बहुत खुश मत होइए, जंग अभी बाकी है।

खुद आईना देखें, उसे दिखाने वाले

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अपनी सनसनीखेज खबरों के जरिये दुनिया के तमाम सत्ता नायकों को दहला देने वाले जूलियन असांज की हालत गंभीर है और लंदन स्थित इक्वाडोर के दूतावास में उनका इलाज चल रहा है। भारत में दो वरिष्ठ पत्रकार तिहाड़ जेल में न्यायिक हिरासत गुजार रहे हैं। उधर ब्रिटेन में हर रोज ठंडे पड़ते मौसम में एक न्यायमूर्ति की रिपोर्ट के बाद बहस गरम है कि क्यों न मीडिया के लिए आचार संहिता लागू कर दी जाए? ये तीन खबरें दो अलग महाद्वीपों से आई हैं, परंतु इनकी ध्वनि एक है- मीडिया जटिल सवालों के घेरे में है, उसकी विश्वसनीयता दांव पर लगी हुई है।
असांज ने पिछले छह महीने से इक्वाडोर के दूतावास में शरण ली हुई है। विभिन्न देशों में उन पर तरह-तरह के मुकदमे हैं, जो शायद कभी आकार ही नहीं लेते, अगर उन्होंने संसार के सबसे ताकतवर लोगों से अदावत मोल न ली होती। अब जब वह फेफड़ों के गंभीर संक्रमण से ग्रस्त हैं, तो सवाल उठने लाजिमी हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हिरासत के दौरान उन्हें कुछ ऐसा दे दिया गया, जो इस वक्त उनके लिए घातक साबित हो रहा है? यदि इस पर जांच की मांग की जाए, तो दिक्कत यही है कि उन्हें उन्हीं लोगों से जूझना होगा, जो आरोपी होने के साथ मुन्सिफ भी हैं। ऐसा नहीं होता, तो उन्हें दर-बदर होने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता। पर क्या बात सिर्फ इतनी सी है कि सत्ताधीशों से उलझना दिक्कतों को दावत देना है? कहीं यह एक चालू मुहावरा तो नहीं बन गया है?
इंग्लैंड से बात शुरू करते हैं। जब यह खबर आई कि संसार के सबसे ताकतवर मीडिया मुगल रुपर्ट मर्डोक के अखबार ने कुछ लोगों के फोन हैक कराए, तो सनसनी मच गई। ब्रिटेन के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था। इससे इतनी हाय-तौबा मची कि मर्डोक को अखबार बंद करना पड़ा और संपादक सहित वरिष्ठ अधिकारियों को जेल की हवा भी खानी पड़ गई। तब भी सवाल उठे थे कि आजादी के नाम पर क्या मीडिया उच्छृंखल हो गया है? क्या उसने लोगों की निजी जिंदगियों में झांकना शुरू कर दिया है? क्या उसने उस लक्ष्मण रेखा की चिंता करनी छोड़ दी है, जो उसे मर्यादा का सुरक्षा कवच प्रदान करती आई है?
हर लोकतंत्र की तरह ब्रिटेन में यह बहस सामाजिक हलकों का हिस्सा बनकर बदलाव लाती, उससे पहले ही राजनीतिक तंत्र ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। तरह-तरह के आरोप उछलने लगे और सोशल मीडिया सच्चे-झूठे, किस्सों से भर गया। इसी दौरान लॉर्ड लेवेसन की अगुवाई में एक आयोग का गठन किया गया। 17 महीनों की पड़ताल के बाद न्यायमूर्ति लेवेसन ने जो निष्कर्ष निकाले, उसने मीडिया संस्थानों को हिलाकर रख दिया है। उनका सुझाव है कि एक ऐसी निगरानी संस्था बनाई जाए, जिसमें सांसद और मीडिया के प्रतिनिधि शामिल हों। यह इतनी ताकतवर हो कि उसे ‘उद्योग और सरकार’ प्रभावित न कर सकें।
इस संस्था को आचार संहिता भंग होने की स्थिति में जांच करने के पूरे अधिकार होने चाहिए। यदि आरोप सही साबित होते हैं, तो संबंधित मीडिया संस्थान के कुल टर्नओवर का एक प्रतिशत या दस लाख पाउंड जुर्माने तक की सजा सुनाने का हक भी इसके हाथ में होना चाहिए। इस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट में एक सुझाव यह भी है कि मीडिया इंडस्ट्री को अपने लिए, अपनी तरफ से ऐसी संस्था बनानी चाहिए, जो उसके खिलाफ लगने वाले आरोपों की जांच कर सके और फैसले सुना सके।
इस जांच दल ने कुछ खबरों और उनके परिणामों की भी गहनता से जांच की। लॉर्ड लेवेसन के अनुसार, गलत अथवा भ्रामक रिपोर्टिंग की वजह से जन-धन की हानि हुई। कहने की जरूरत नहीं कि गए शुक्रवार को इस रिपोर्ट के आने के बाद से ब्रिटिश प्रेस में हंगामा मच गया है। पत्रकारों ने इसे अभिव्यक्ति की आजादी के लिए खतरा बताया है। आने वाले दिनों में वहां क्या कुछ होता है, यह देखना दिलचस्प रहेगा।
अब आते हैं भारत पर। एक नामचीन मीडिया समूह के दो वरिष्ठ संपादक इस समय अवैध वसूली के आरोप में न्यायिक हिरासत में हैं। एक कांग्रेसी सांसद का आरोप है कि इन लोगों ने उनसे खबर की एवज में 100 करोड़ रुपये की मांग की। उनके लोगों ने इस बातचीत को कैमरे में कैद कर सीडी दिल्ली पुलिस की विशेष अपराध शाखा के हवाले कर दी। पुलिस का दावा है कि विधिवत जांच के दौरान सीडी सही पाई गई। इसी के आधार पर उन्होंने कार्रवाई की। सवाल उठ रहे हैं कि क्या पुलिस ने अति सक्रियता दिखाई? जाहिर तौर पर मीडिया समूह ने नवीन जिंदल के आरोपों का खंडन करते हुए आरोप लगाया है कि सरकार मीडिया की आजादी का गला घोटने पर आमादा है।
मामला अब अदालत में पहुंच गया है, इसलिए इस सिलसिले में ज्यादा बात करने की बजाय हम क्यों न उन सिद्धांतों पर चर्चा करें, जिनके बल पर पूरे संसार के पत्रकार आज तक अपना सीना चौड़ा करके चलते रहे हैं? हम सभी को पत्रकारिता की किताबों में पढ़ाया गया है कि हमारा काम संविधानसम्मत, सामाजिक मर्यादाओं के अनुकूल और जन साधारण के हित में होना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा है? अक्सर लोग आरोप लगाते हैं कि व्यवसायीकरण ने मीडिया को गलत रास्ते पर ला पटका है। क्या वाकई ऐसा है?
यह ठीक है कि मीडिया व्यावसायिक हो गया है। यह भी सही है कि उसे लाभ-हानि के तराजू में तोला जाता है। ठीक यह भी है कि तमाम मीडिया कंपनियां शेयर बाजारों में लिस्टेड हैं और हर तीन महीने में अपने नफे-नुकसान का ब्योरा पेश करती हैं। मैं पूछता हूं कि इसमें हर्ज क्या है? एक अखबार, न्यूज चैनल या खबरिया वेबसाइट अपने उपयोगकर्ता से वायदा क्या करती है? यही कि हम आप तक खबर और विचार पहुंचाएंगे। पता नहीं क्यों, हम भूल जाते हैं कि समाचार का अकेला, और सिर्फ अकेला तत्व ‘सत्य’ है।
अगर सच के साथ छेड़छाड़ की गई है, तो वह कहानी हो सकती है, खबर नहीं। अब पत्रकारों को तय करना है कि उनकी पेशेवर नैतिकता क्या है? वे खबर लिखना और दिखाना चाहते हैं या कहानी? भूलिए मत, इस देश को मसालेदार कहानियों के मुकाबले खबरों की ज्यादा जरूरत है। इसीलिए आज भी वही अखबार या चैनल प्रतिष्ठा पाते हैं, जो सच पर अडिग रहते हैं।
एक बात और। अगर समाज को पेशेवर डॉक्टर, शिक्षक या वकील की जरूरत है, तो प्रोफेशनल पत्रकार की क्यों नहीं? फिर यह कहने में संकोच क्यों कि हम पेशेवर तौर पर सच बोलने और लिखने वाले हैं। पर इसके लिए सच बोलने-लिखने वालों को सत्य की राह पर ही चलना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं, तो फिर मीडिया के लिए भारी-भरकम कानून और आचार संहिताएं बनाने की जरूरत ही नहीं रह जाएगी। फिर कानूनों से होता भी क्या है? तमाम संहिताओं के बावजूद यदि शताब्दियां बीत जाने पर भी अपराध नहीं रुके, अपराधी खत्म नहीं हुए, तो मीडिया पर चाबुक चलाने से क्या हो जाएगा?
यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया पर हंटर का तर्क हमारे चाल, चरित्र और चेहरे में आए बदलाव के बाद उठा है। यह मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी मांग है कि लोगों को आईना दिखाने वाले खुद अपना चेहरा उसी आईने में देखें और अपने लिए सही रास्ते का चुनाव करें। कुछ लोगों की करतूत से हमेशा के लिए शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं है।

Wednesday, October 10, 2012

संयम बनाता उज्‍जवल व्यक्तित्व

 "संयम के ही स्कूल में उज्‍जवल व्यक्तित्व बनता है।" पवित्रता का बोध सरल है। ब्रह्मचर्य के आदर्श तथा विवाहित जीवन की मांगलिकता का मनोरम वर्णन करना और पवित्र जीवन से इहलोक एवं परलोक में होने वाले लाभ गिना देना भी सरल बात है परंतु वास्तविक काम तो इन बातों को कहने-सुनने के बाद ही शुरू होता है। कक्षा में पाठ चला। अब उसे ठीक से समझकर, लिखकर, विचारकर, पचाकर तैयार करने की जिम्मेदारी विद्यार्थी की है।हृदय में बीज पड़ा। उसका सिंचन, रक्षण, पोषण करके, उसमें से वृक्ष पैदा करने की जिम्मेदारी जीवन-कृषक की है।शुद्ध-जीवन का गौरव इसमें ही समाया हुआ है कि वह बाहर से मंगाई हुई चीज नहीं बल्कि अंतर की प्रेरणा और आत्म-प्रयत्न से प्राप्त की हुई सिद्धि है। रटे हुए पाठ और स्वप्रयत्न से हल किए हुए सवाल के बीच जितना अंतर है, उतना ही इनमें है। व्यक्तित्व-निर्माण का काम स्वयं व्यक्ति का है, यही इसका सीधा अर्थ हुआ। आदर्श तथा पवित्र जीवन की बातें सुनकर अगर कोई कहे कि "तुम्हारी बात सच्ची, लेकिन मुझे अपना व्यसन प्रिय" तो फिर बात ही खत्म। बेशक ऐसी स्पष्टता से कहने वाला तो कोई ही मिलता है। वास्तविक जोखम तो उन युवकों के लिए है, जो कुछ उदासीनता से और लाचारी से विनयपूर्वक कहते हैं, "तुम्हारी बात सच्ची; तुम्हारा आदर्श अच्छा; लेकिन हम रहे कलियुग के जीव, बीसवीं सदी के संसार में ऋषियों का-सा जीवन जीना संभव नहीं। मर्यादा जितनी पालन हो सकेगी, उतनी पालन करेंगे। लेकिन जमाने के अनुकूल हुए बिना कोई छुटकारा नहीं।इस प्रकार, आदर्श और व्यवहार के बीच समझौता करने का वे प्रयत्न करते हैं। बातें अच्छी सुनते हैं, कर्म खराब किए जाते हैं। एक हाथ से भगवान की ओर दूसरे हाथ से संसार की आरती उतारते हैं।इस नाटक में जोखिम है। इस समाधान में कुटिल व्यापार-बुद्धि है। इस मिश्र प्रयोग में निष्फलता के बीज हैं। एक म्यान में दो तलवारें नहीं रहतीं।व्यसन और वह भी अशुद्धता का- चिकनी चीज हैं, चिपक जाता है, लिपट जाता है और चिमट जाता है। सूक्ष्म तार द्वारा वज्र का बंधन बनाता है, मकड़ी के जाले गूंथकर कैदखाने की दीवार बांधता है।प्रथम यह, नम्र-भाव से सुख देने और सेवा करने का यकीन दिलाता है; लेकिन मौका देखकर ढोंग छोड़ देता है और उद्धत वन आत्मा के सिंहासन पर बैठ जाता है। इस नौकर को घर के अंदर पैर रखने दोगे, तो उसके गुलाम होने की तुम्हारी बारी आ जाएगी।

Saturday, September 29, 2012

10 दिनों बाद गणपति तो अपने गांव की ओर चल पड़े हैं. लेकिन छोड़ गए हैं दस नहीं सैकड़ों सवाल. 10 दिनों तक सबसे ज्यादा भक्त लालबाग के राजा के दरबार में पहुंचते हैं, लेकिन वहां भक्तों के साथ कई बार ऐसा सलूक होता है जिसने आस्था के नाम पर हो रहे आडंबर पर मुहर लगा दी है.

गणपति के भक्‍त  मुताबिक, 'मंडल के कार्यकर्ताओं का बर्ताव लोगों से ठीक नहीं. इज्जत नहीं, मैनेजमेंट नहीं तो नहीं देखना अच्छा है. मगर तीन-तीन दिन तक लोग इधर राह देखते हैं लेकिन दर्शन नहीं मिलते. मंडल के कार्यकर्ता कभी-कभी मारते भी हैं. इस वजह से नहीं जाना अच्छा है.'

भक्तों की वजह से जहां भगवान पूजे जाते हैं वहां भक्तों के साथ बदसलूकी की आपको कई घटनाएं पढ़ने को मिल जाएंगी.

एक भक्‍त के मुताबिक, 'मंडल के कार्यकर्ता बाकी पैसे वालों को ऐसे दर्शन कराते हैं कि लगता है कि वही लाल बाग के राजा हैं और हम कोई नहीं हैं. सामान्य आदमी की वजह से लालबाग का राजा मशहूर हुए हैं.'

गणपति के एक और भक्‍त का कहना है, 'हम लाइन लगाके जाते हैं लेकिन दर्शन नहीं होते. दो मिनट भी खड़े नहीं हो सकते. पंडाल के कार्यकर्ता पहचान वाले को ही ज्यादा भेजते हैं.'

पंडालों में श्रद्धा के लिए गूंजने वाला संगीत भोंडेपन की तरफ जा रहा है. पूजा की भावना कई बार आडंबर में दबकर रह जाती है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या भक्ति में भोंडापन आ गया है? क्या पूजा प्रदूषित हो गई है? क्या आस्था के नाम पर भगवान का अपमान होता है?

Tuesday, September 25, 2012

बेच रहे हो?अनचाहे गर्भ से मुक्ति की गारंटी!क्या सिखा रहे हो?

शर्मी की हद पार कर चुके व्यापार जगत से ज्यादा गुस्सा देश को दिशा देने का दावा करने वाले न्यूज़ चैनल और अख़बारो मे इस विज्ञापन को देख कर आया।क्या दिखा रहे हैं ये लोग अनचाहे गर्भ से मुक्ति दिलाने वाली गोलियो का विज्ञापन?मै अभी प्रेग्नेन्ट नही होना चाहती हूं की पंच लाईन के साथ।कल रात हमसे भूल हुई?गोली खाईये और भूल से छूटकारा।और ऐसी गोलिया है तो डर किस बात का करिये भूल और अनचाहे गर्भ से मुक्ति पाने,वो भी बिना गर्भपात के झंझट का उपाय है गोली।क्या बेच रहे हो?अनचाहे गर्भ से मुक्ति की गारंटी!क्या सिखा रहे हो?उन्मुक्त यौनाचार!क्या हमे कभी आईना देखने पर शर्म आयेगी?अब सब कुछ बदल गया है?हम एड्वांस और प्रोग्रेसिव हो गये है शायद?अब दूरदर्शन पर इनकी खुशी का राज़ डिलक्स निरोध का सरकारी विज्ञापन शुरू होते ही टी वी बंद करने के दिन नही रहे।अब आप देखिये खुशी से कल रात भूल करने और प्रेग्नेन्ट नही होने के नुस्खे।पता नही क्या-क्या बेचेंगे हम?

Friday, August 31, 2012

 देश भक्ति और जन सेवा
होली हो दिवाली हो या कोई भी त्योहार हो  देश की जनता की देश भक्ति और जन सेवा के नारे के साथ सेवा करने वाली पुलिस को उपहार स्वरूप तिरस्कार झेलना पड़ता है। सच माने तो सन् 1861 में बने पुलिस एक्ट में आज तक संशोधन नहीं हुआ परिणाम स्वरूप पुलिस की छवि अंग्रेजों के समय की ही तरह क्रूर बनी हुई है, विचार की जाने वाली बात यह है कि जब पुलिस जनता के लिए है तो जनता और पुलिस के बीच संबंधों में मध्ुारता क्यों नही आ सकती है? आज जनता पुलिस का सम्मान नाग की पूजा की तरह करती है जो कि भय वश होता है।
    क्या पुलिसकर्मी की निजी जिंदगी नहीं होती? सरकार ने पुलिस के कार्य अवधि का निर्धारण तो नहीं किया साथ ही उनको सौंपी जाने वाली जिम्मेदारियों का भी कोई आकार तय नहीं किया। क्या सरकार इन्हें इन्सान नहीं समझती है अगर सरकार इन्हें इन्सान समझती तो इनके ही समकक्ष अन्य सरकारी कर्मचारियों को साल के 365 दिनों में 52 रविवार 25 शासकीय अवकाश 104 अर्ध अवकाश तथा 30 दिन का अर्जित अवकाश दिया जाता है जो एक वर्ष के 1200 घंटे होते हैं इसके विपरीत पुलिस विभाग को शासन द्वारा 61 छुट्टीयां दी जाती हैं जिनमें 30 दिन का अर्जित अवकाश, 15 दिन का विशेष अवकाश व 16 दिन का आकस्मिक अवकाश दिया गया हैं। लेकिन मध्यप्रदेश में लगभग पुलिस और जनता का अनुपात 1000 में 1 पुलिसकर्मी है। इस कारण से वे इस लाभ से वंचित उपयोग रह जाते हैं। इसके विपरीत पुलिस दिन में 18 घंटे तनाव एवं व्यस्ततापूर्ण बिताते हुए एक वर्ष में 6570 घंटे कार्य करती हैं। पुलिस के कार्य की प्रगति शारीरिक मानसिक व्यस्तता  के साथ-साथ उतनी ही जोखिम भरी हैं। तो क्या इतनी व्यस्तता के अलावा पुलिसकर्मियों को अधिकार नहीं हैं कि वे अपने पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन कर सकें। कार्य के बोझ से और शासन की अनदेखी का नतीजा है कि समाचार पत्रों में पुलिसकर्मियों के आत्महत्या की खबर अक्सर प्रकाशित होती रहती है। अक्सर लोग कहते हैं कि जनता के प्रति पुलिस का क्या दायित्व है पर ये कोई क्यों नहीं सोचता कि जनता के भी कुछ दायित्व पुलिस के लिए हैं जो जनता भूल चुकी है सच मानें तो पुलिस विभाग के पास एक ऐसा सशक्त जनसंपर्क विभाग हो जो केवल जनता और पुलिस के बीच सौहाद्र पूर्ण संबंध स्थापित कर सके।

Thursday, August 30, 2012

                   कागजी फांसी
आज का दिन भारत के लिए एक एतिहासिक दिन है.आज न्यायपालिका नें अपनी तरफ से २००२  गुजरात दंगों के मामले में  ३२ को दोषी करार देने के  साथ-साथ २००८के मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले के मुख्य आरोपी अजमल कसाब कद्ब  फांसी की सजा को बरकरार  रखा है.निश्चित तौर पर ये दोनों फौसले बेहद अहम फौसले है.अब तो बस हर किसी के मन एक ही सवाल उठ रहा है फै सले पर अम्ल का दिन कब आएगा या तो फिर भारतीय संसद में हमले के अभियुक्त अफजल गुरू की फांसी तरह यह फैसला सिर्फ कागजों में ही दर्ज रह जाएगा.१३दिसंबर २००१लगभग १२साल बीत चुके हैं. इस घटना से जुड़ी एक अहम बात स्म्रती में दस्तक दे रही है ,जब अफजल गुरू की दया याचिका तात्कालिक राष्ट्रपति एे.पी.जे. अब्दुल कलाम के पास पेश की गई तब इस घटना में शहीद जवानों की बेवाओं नें अपनें परमवीर चक्र वापस करने की बात कही थी.आखिरकार महामहिम नें याचिका को अस्वीकार कर के सर्वोच्च न्यायलय के फै सले को बरकरार रखा. हमारे देश की बड़ी विडंम्बना की बमुश्किल कई साल लग जातें हैं . इन अहम फैसलों के लिए ,पर इन पर अमल होना तो दूर यह संसद में बहस का मुद्दा बन के रह जाता है.और बस रह जाती है कागजी फांसी .....