आतंक से जंग अभी बाकी है
अपने देश से जलावतनी भुगत रहे परवेज मुशर्रफ की आमदनी का यह भी एक जरिया है। अब पूरी दुनिया से उन्हें भाषण देने के लिए आमंत्रित किया जाता है। इसके बदले में जो रकम उन्हें हासिल होती है, वह उन्हें ‘अमीर’ तो नहीं बनाती, पर इतना जरूर है कि वह ‘आराम’ से रहते हैं और ‘संतुष्ट’ हैं। भारत में जनरल के जितने प्रशंसक हैं, उससे कहीं ज्यादा लोग उनके खिलाफ हैं। वह कारगिल के वास्तुकार के तौर पर जाने जाते हैं। हालांकि, यह सच है कि उसके बाद आगरा आकर उन्होंने इस कलंक को धोने की कोशिश की। उनका यह धब्बा इससे हल्का जरूर पड़ा, पर भारत को कितना फायदा हुआ? इसके बाद भी हमारे देश में बम विस्फोट होते रहे। खुद कसाब इसका बड़ा उदाहरण है। यह सच है कि दोनों देशों की जनता लड़ाई नहीं चाहती, पर यह भी झूठ नहीं है कि सरहद के दोनों ओर मोहब्बत और नफरत का दरिया भी बराबरी से बहता है। मेहदी हसन और गुलाम अली की गजलों पर गूंजती तालियों की गड़गड़ाहटें अगर सीमाओं की मोहताज नहीं हैं, तो इसमें भी सच्चाई है कि एक क्रिकेट या हॉकी मैच पुराने घावों को हरा करने के लिए काफी है।
इन दिनों एक टेलीविजन चैनल पर दोनों देशों के उभरते हुए गायक अपनी मौसिकी का जलवा दिखा रहे हैं। एक व्यावसायिक प्रतियोगिता के प्रतिभागी होने के नाते इनमें से किसी एक को विजेता बनना है। मुझे अचरज होता है, जब खूबसूरत एंकर यह कहती है कि अमुक ने अपने देश का नाम ऊंचा किया। प्रतियोगी भी सीना चौड़ा कर अपने गायन को देश के प्रति अपनी वफादारी और जिम्मेदारी से जोड़ते नजर आते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मायानगरी मुंबई के कारोबारी जन भावनाओं को भुनाना जानते हैं। इस शो की लोकप्रियता इस बात का उदाहरण है कि भारत-पाक रिश्तों की कड़वाहट को बेचा भी जा सकता है।
सवाल उठता है कि जहर की इस फसल को किसने बोया? बड़ा आसान है कुछ राजनेताओं को दोष दे देना। पर यह सच है कि दोनों ही मुल्कों के नेताओं ने जब कभी पूरे मन से इस खाई को पाटने की कोशिश की, तो उन्हीं के सहयोगियों ने उनके मनसूबों पर पानी फेर दिया। आप याद करें। पाकिस्तान बनने के तत्काल बाद मोहम्मद अली जिन्ना से किसी ने पूछा था कि अगर भारत पर कोई हमला कर दे, तो पाकिस्तान की फौज क्या करेगी? उनका जवाब था कि हम मिलकर उससे लड़ेंगे। यह ठीक है कि पाकिस्तान के कायदे आजम और हिन्दुस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मन नहीं मिलते थे। कुछ इतिहासकार उनकी निजी खुन्नस की आड़ में बंटवारे के शोले भड़कते देखते हैं, पर यह भी सच है कि कई बार जवाहरलाल नेहरू ने अपने मंत्रिमंडल की इच्छा के खिलाफ पाकिस्तान के पक्ष में फैसले किए। दोनों देश किसी मकसद पर पहुंचते, इससे पहले ही जिन्ना चले गए।
नेहरू की मौत के बाद 1965 की लड़ाई ने जाहिर कर दिया कि ये मुल्क अब लंबे समय तक एक रास्ते पर नहीं चलेंगे। दोनों ओर बड़ी संख्या में मौजूद शरणार्थी नफरत की आंधी को बल दे रहे थे। उन्हें दो शिकायतें थीं। पहली तो यह कि बंटवारे के दौरान उनके पुराने पड़ोसियों ने ही उनके साथ बदसलूकी की। दूसरी, इन शरणार्थियों को अपनी नई जमीन पर भी फलने-फूलने का, उनकी इच्छानुसार मौका नहीं मिल रहा था। पाकिस्तान में वे मुहाजिर कहलाते थे और भारत में शरणार्थी। परवेज मुशर्रफ पर आरोप है कि उन्होंने कारगिल सिर्फ इसलिए रचा, क्योंकि वह पहले मुहाजिर सेनाध्यक्ष थे। उन्हें अपनी वफादारी दर्शानी थी और इसके लिए उन्होंने पाकिस्तान को एक बार फिर से जिल्लत का सामना करवाने का जोखिम उठाया। मैं यहां यह भी याद दिलाना चाहूंगा कि पाकिस्तानी सेना में कट्टरपंथी तत्वों का लगातार बोलबाला होता गया, इसीलिए वहां जब भी लोकतांत्रिक सरकारों ने सुलह की कोशिश की, संगीनों के बल पर मुल्क को फिर से नफरत के अलाव में झोंक दिया गया।
शिमला समझौते के बाद भुट्टो और इंदिरा गांधी भारत और पाकिस्तान के बीच नई दोस्ती की बुनियाद रखना चाहते थे। जनरल जियाउल हक ने पहले उन्हें अपदस्थ कर जेल भेजा और बाद में उन्हें तख्ते पर लटका दिया। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा के बाद नवाज शरीफ का भी बुरा हाल हुआ। उनकी जान तो बच गई, पर सत्ता गंवानी पड़ी।
जियाउल हक ने हुकूमत संभालने के बाद भारत से सीधी लड़ाई मोल नहीं ली। उन्होंने आईएसआई को मजबूत बनाकर हमारे पंजाब और कश्मीर में आतंकवाद की बयार चला दी। मुशर्रफ के समय में भी आईएसआई को मनमर्जी की छूट मिली। वह कभी अपने बॉस रहे जनरल हक से कुछ कदम आगे बढ़ गए।
कारगिल में लगी आग इसका प्रमाण है। आशय यह है कि अगर हमें कुछ और कसाब नहीं चाहिए, तो सबसे पहले पाकिस्तान के राजनेताओं को अपने देश को ‘भारत भय की ग्रंथि’ से मुक्त कराना होगा। वे जब तक ऐसा नहीं करेंगे, तब तक दहशतगर्दों की दुकानें वहां फलती-फूलती रहेंगी। हमारे यहां एक स्थापित लोकतंत्र है और राष्ट्रीय एकता के मामले में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत साझा राय रखता है। हमारी राष्ट्रीयता किसी से नफरत पर नहीं, बल्कि अपनी ‘बहुलता में एकता’ की ऐतिहासिक नींव पर टिकी हुई है। इसके उलट पाकिस्तान अब भी सामंती और कबीलाई संघर्षों में उलझा हुआ है। उसे सिर्फ भारत विरोध के नाम पर लंबे समय तक एक नहीं रखा जा सकता और हमारे देश में आतंकवाद का निर्यात कर वे खुद भी सुरक्षित नहीं रह सकते।
पिछले चार साल में भारत से कहीं ज्यादा हमले पाकिस्तान के अंदर हुए हैं। जब तक वहां की सेना, गुप्तचर संस्थाएं और लोकतांत्रिक संगठन इस सच को स्वीकार नहीं कर लेते कि उनके द्वारा पैदा किया गया भस्मासुर उन्हीं के लिए खतरा बन गया है, तब तक मजबूरन हमें भी कसाब जैसे लोगों से निपटने के लिए अभिशप्त रहना पड़ेगा। इसलिए बहुत खुश मत होइए, जंग अभी बाकी है।