खुद आईना देखें, उसे दिखाने वाले
अपनी सनसनीखेज खबरों के जरिये दुनिया के तमाम सत्ता नायकों को दहला
देने वाले जूलियन असांज की हालत गंभीर है और लंदन स्थित इक्वाडोर के
दूतावास में उनका इलाज चल रहा है। भारत में दो वरिष्ठ पत्रकार तिहाड़ जेल
में न्यायिक हिरासत गुजार रहे हैं। उधर ब्रिटेन में हर रोज ठंडे पड़ते मौसम
में एक न्यायमूर्ति की रिपोर्ट के बाद बहस गरम है कि क्यों न मीडिया के
लिए आचार संहिता लागू कर दी जाए? ये तीन खबरें दो अलग महाद्वीपों से आई
हैं, परंतु इनकी ध्वनि एक है- मीडिया जटिल सवालों के घेरे में है, उसकी
विश्वसनीयता दांव पर लगी हुई है।
असांज ने पिछले छह महीने से इक्वाडोर के दूतावास में शरण ली हुई है।
विभिन्न देशों में उन पर तरह-तरह के मुकदमे हैं, जो शायद कभी आकार ही नहीं
लेते, अगर उन्होंने संसार के सबसे ताकतवर लोगों से अदावत मोल न ली होती। अब
जब वह फेफड़ों के गंभीर संक्रमण से ग्रस्त हैं, तो सवाल उठने लाजिमी हैं
कि कहीं ऐसा तो नहीं कि हिरासत के दौरान उन्हें कुछ ऐसा दे दिया गया, जो इस
वक्त उनके लिए घातक साबित हो रहा है? यदि इस पर जांच की मांग की जाए, तो
दिक्कत यही है कि उन्हें उन्हीं लोगों से जूझना होगा, जो आरोपी होने के साथ
मुन्सिफ भी हैं। ऐसा नहीं होता, तो उन्हें दर-बदर होने के लिए मजबूर नहीं
होना पड़ता। पर क्या बात सिर्फ इतनी सी है कि सत्ताधीशों से उलझना दिक्कतों
को दावत देना है? कहीं यह एक चालू मुहावरा तो नहीं बन गया है?
इंग्लैंड से बात शुरू करते हैं। जब यह खबर आई कि संसार के सबसे ताकतवर
मीडिया मुगल रुपर्ट मर्डोक के अखबार ने कुछ लोगों के फोन हैक कराए, तो
सनसनी मच गई। ब्रिटेन के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ था। इससे इतनी
हाय-तौबा मची कि मर्डोक को अखबार बंद करना पड़ा और संपादक सहित वरिष्ठ
अधिकारियों को जेल की हवा भी खानी पड़ गई। तब भी सवाल उठे थे कि आजादी के
नाम पर क्या मीडिया उच्छृंखल हो गया है? क्या उसने लोगों की निजी जिंदगियों
में झांकना शुरू कर दिया है? क्या उसने उस लक्ष्मण रेखा की चिंता करनी
छोड़ दी है, जो उसे मर्यादा का सुरक्षा कवच प्रदान करती आई है?
हर लोकतंत्र की तरह ब्रिटेन में यह बहस सामाजिक हलकों का हिस्सा बनकर
बदलाव लाती, उससे पहले ही राजनीतिक तंत्र ने उसे अपने कब्जे में ले लिया।
तरह-तरह के आरोप उछलने लगे और सोशल मीडिया सच्चे-झूठे, किस्सों से भर गया।
इसी दौरान लॉर्ड लेवेसन की अगुवाई में एक आयोग का गठन किया गया। 17 महीनों
की पड़ताल के बाद न्यायमूर्ति लेवेसन ने जो निष्कर्ष निकाले, उसने मीडिया
संस्थानों को हिलाकर रख दिया है। उनका सुझाव है कि एक ऐसी निगरानी संस्था
बनाई जाए, जिसमें सांसद और मीडिया के प्रतिनिधि शामिल हों। यह इतनी ताकतवर
हो कि उसे ‘उद्योग और सरकार’ प्रभावित न कर सकें।
इस संस्था को आचार संहिता भंग होने की स्थिति में जांच करने के पूरे
अधिकार होने चाहिए। यदि आरोप सही साबित होते हैं, तो संबंधित मीडिया
संस्थान के कुल टर्नओवर का एक प्रतिशत या दस लाख पाउंड जुर्माने तक की सजा
सुनाने का हक भी इसके हाथ में होना चाहिए। इस लंबी-चौड़ी रिपोर्ट में एक
सुझाव यह भी है कि मीडिया इंडस्ट्री को अपने लिए, अपनी तरफ से ऐसी संस्था
बनानी चाहिए, जो उसके खिलाफ लगने वाले आरोपों की जांच कर सके और फैसले सुना
सके।
इस जांच दल ने कुछ खबरों और उनके परिणामों की भी गहनता से जांच की।
लॉर्ड लेवेसन के अनुसार, गलत अथवा भ्रामक रिपोर्टिंग की वजह से जन-धन की
हानि हुई। कहने की जरूरत नहीं कि गए शुक्रवार को इस रिपोर्ट के आने के बाद
से ब्रिटिश प्रेस में हंगामा मच गया है। पत्रकारों ने इसे अभिव्यक्ति की
आजादी के लिए खतरा बताया है। आने वाले दिनों में वहां क्या कुछ होता है, यह
देखना दिलचस्प रहेगा।
अब आते हैं भारत पर। एक नामचीन मीडिया समूह के दो वरिष्ठ संपादक इस समय
अवैध वसूली के आरोप में न्यायिक हिरासत में हैं। एक कांग्रेसी सांसद का
आरोप है कि इन लोगों ने उनसे खबर की एवज में 100 करोड़ रुपये की मांग की।
उनके लोगों ने इस बातचीत को कैमरे में कैद कर सीडी दिल्ली पुलिस की विशेष
अपराध शाखा के हवाले कर दी। पुलिस का दावा है कि विधिवत जांच के दौरान सीडी
सही पाई गई। इसी के आधार पर उन्होंने कार्रवाई की। सवाल उठ रहे हैं कि
क्या पुलिस ने अति सक्रियता दिखाई? जाहिर तौर पर मीडिया समूह ने नवीन जिंदल
के आरोपों का खंडन करते हुए आरोप लगाया है कि सरकार मीडिया की आजादी का
गला घोटने पर आमादा है।
मामला अब अदालत में पहुंच गया है, इसलिए इस सिलसिले में ज्यादा बात करने
की बजाय हम क्यों न उन सिद्धांतों पर चर्चा करें, जिनके बल पर पूरे संसार
के पत्रकार आज तक अपना सीना चौड़ा करके चलते रहे हैं? हम सभी को पत्रकारिता
की किताबों में पढ़ाया गया है कि हमारा काम संविधानसम्मत, सामाजिक
मर्यादाओं के अनुकूल और जन साधारण के हित में होना चाहिए। क्या ऐसा हो रहा
है? अक्सर लोग आरोप लगाते हैं कि व्यवसायीकरण ने मीडिया को गलत रास्ते पर
ला पटका है। क्या वाकई ऐसा है?
यह ठीक है कि मीडिया व्यावसायिक हो गया है। यह भी सही है कि उसे
लाभ-हानि के तराजू में तोला जाता है। ठीक यह भी है कि तमाम मीडिया कंपनियां
शेयर बाजारों में लिस्टेड हैं और हर तीन महीने में अपने नफे-नुकसान का
ब्योरा पेश करती हैं। मैं पूछता हूं कि इसमें हर्ज क्या है? एक अखबार,
न्यूज चैनल या खबरिया वेबसाइट अपने उपयोगकर्ता से वायदा क्या करती है? यही
कि हम आप तक खबर और विचार पहुंचाएंगे। पता नहीं क्यों, हम भूल जाते हैं कि
समाचार का अकेला, और सिर्फ अकेला तत्व ‘सत्य’ है।
अगर सच के साथ छेड़छाड़ की गई है, तो वह कहानी हो सकती है, खबर नहीं। अब
पत्रकारों को तय करना है कि उनकी पेशेवर नैतिकता क्या है? वे खबर लिखना और
दिखाना चाहते हैं या कहानी? भूलिए मत, इस देश को मसालेदार कहानियों के
मुकाबले खबरों की ज्यादा जरूरत है। इसीलिए आज भी वही अखबार या चैनल
प्रतिष्ठा पाते हैं, जो सच पर अडिग रहते हैं।
एक बात और। अगर समाज को पेशेवर डॉक्टर, शिक्षक या वकील की जरूरत है, तो
प्रोफेशनल पत्रकार की क्यों नहीं? फिर यह कहने में संकोच क्यों कि हम
पेशेवर तौर पर सच बोलने और लिखने वाले हैं। पर इसके लिए सच बोलने-लिखने
वालों को सत्य की राह पर ही चलना होगा। अगर वे ऐसा करते हैं, तो फिर मीडिया
के लिए भारी-भरकम कानून और आचार संहिताएं बनाने की जरूरत ही नहीं रह
जाएगी। फिर कानूनों से होता भी क्या है? तमाम संहिताओं के बावजूद यदि
शताब्दियां बीत जाने पर भी अपराध नहीं रुके, अपराधी खत्म नहीं हुए, तो
मीडिया पर चाबुक चलाने से क्या हो जाएगा?
यहां यह भी गौरतलब है कि मीडिया पर हंटर का तर्क हमारे चाल, चरित्र और
चेहरे में आए बदलाव के बाद उठा है। यह मौजूदा वक्त की सबसे बड़ी मांग है कि
लोगों को आईना दिखाने वाले खुद अपना चेहरा उसी आईने में देखें और अपने लिए
सही रास्ते का चुनाव करें। कुछ लोगों की करतूत से हमेशा के लिए शर्मिंदा
होने की जरूरत नहीं है।